![Court decision on custody of children after divorce](https://hindustangk.com/wp-content/uploads/2023/12/child-custody-after-divorce-n.jpg)
Court decision on custody of children after divorce
भारत में तलाक के बाद बच्चों की कस्टडी पर क्या कानून है।Court decision on custody of children after divorce
तलाक के बाद अक्सर ये समस्या पैदा होती है कि माता या पिता दोनों में से बच्चे किसके पास रहेंगे। कई बार माँ बच्चों की कस्टडी पर अपना हक़ जताती है वहीं बहुत बार पिता पक्ष भी बच्चों पर अपना हक़ जताता है। आज हम तलाक के बाद बच्चों की कस्टडी पर भारत में क्या कानून है या किस आधार पर माता पिता को बच्चों की कस्टडी दी जाती है इस पर चर्चा करेंगे।
भारत में 18 साल से कम उम्र के बच्चों को तलाक के बाद कानूनी तौर कोर्ट द्वारा माता या पिता दोनों में एक को बच्चे सौंपे जाते हैं उसे बच्चों की कस्टडी देना कहा जाता है। इसमें कोर्ट द्वारा ये देखा जाता है कि माता – पिता में से कौन बच्चे की अच्छे से संभाल यानि पालन कर सकता है |
बच्चे की Custody का फैसला अधिकांश मामलों में “बच्चे के हित में सर्वोत्तम” (best interest of the child) के सिद्धांत पर किया जाता है। जब कभी भी न्यायालय बच्चे की Custody का फैसला करता है, तो इसमें कुछ मुख्य आधार होते हैं :-
![Court decision on custody of children after divorce](https://hindustangk.com/wp-content/uploads/2023/12/child-custody-after-divorce-300x200.jpg)
बच्चे के निवास स्थान का भी प्रभाव होता है। न्यायालय देखेगा कि कौनसी जगह पर बच्चा अधिक सुखी महसूस करेगा।
- न्यालय बच्चे की पसंद, उसकी सुरक्षा, विकास व उसके अधिकारों के आधार पर फैसला देता है। उसका उद्देश्य होता है कि बच्चा अपने भविष्य में सुरक्षित और स्वस्थ रहे।
- न्यायालय देखता है कि कौनसा माता-पिता बच्चे के शारीरिक, भावनात्मक, और सामाजिक विकास के लिए अधिक योग्य है।
- न्यायालय बच्चे के रिश्तों का भी मूल्यांकन करता है, जैसे कि उनके बड़े भाई-बहन, दादा-दादी, या किसी और के साथ।
- न्यायालय देखता है कि कौनसा माता-पिता बच्चे की बेहतर देखभाल कर सकता है और उनके परीक्षण को कैसे संभालता है।
- वहीं अगर बच्चे की उम्र उम्र पांच साल से कम है तो उसकी कस्टडी माँ को दी जाती है। अगर बच्चा पांच साल से ऊपर है तो उसकी इच्छा के आधार पर कस्टडी दी जाती है। वहीं लड़की जब तक 18 साल की नहीं हो जाती तब तक उसकी कस्टडी माँ को दी जाती है। अगर माँ शरीरक रूप, आर्थिक रूप या दिमागी तौर पर संभालने में असक्षम है तो कस्टडी पिता को भी दी जा सकती है।
- अगर बच्चा किसी एक माता-पिता के साथ रहने के लिए अधिक रुचि प्रदर्शित करता है, तो न्यायालय इसे भी विचार में लेता है।
- न्यायालय देखेगा कि कौनसा माता-पिता बच्चे के लिए आर्थिक रूप से अधिक स्थिर है।
कुछ केसों में बच्चे की पूर्ण कस्टडी एक पक्ष को दी जाती है वहीं दूसरे पक्ष को बच्चे से मिलने के लिए समय निर्धारित किया जाता है। उस केस में पूर्ण कस्टडी वाले पक्ष को अदालत का फैसला मानते हुए निर्धारत समय व स्थान पर बच्चे को दूसरे पक्ष से मिलाना होता है। जैसे कि अगर माँ को बच्चे की कस्टडी मिली है तो अदालत पिता को बच्चे से मिलने के लिए समय निर्धारण करेगी। उस समय में माँ का फ़र्ज़ बनेगा बच्चे को पिता से मिलाये। अगर वह ऐसा नहीं करेंगे तो उनपर कोर्ट की अवमानना का भी मामला चल सकता है।
![Court decision on custody of children after divorce](https://hindustangk.com/wp-content/uploads/2023/12/child-custody-after-divorce-bv.jpg)
कोर्ट इनकम के आधार पर भी बच्चे की कस्टडी का निर्धारण कर सकता है जैसे कि माता – पिता में कौन ज्यादा इनकम कर रहा है। क्यूंकि इससे कोर्ट ये देखेगा कि बच्चे की अच्छे से संभाल कौन कर सकता है। बच्चों का मानसिक और शारीरिक तौर पर विकास होने में पेरेंट के तौर पर कौन मदद करेगा यह भी देखा जाता है।
कस्टडी के कई प्रकार होते हैं जैसे कि फिज़िकल कस्टडी, जॉइंट कस्टडी, लीगल कस्टडी, सोल चाइल्ड कस्टडी व थर्ड पार्टी कस्टडी –
- फिज़िकल कस्टडी :- इसमें माता या पिता में से किसी एक को बच्चे की कस्टडी दी जाती है। दूसरे पक्ष को बच्चे से मिलने के लिए समय निर्धारत किया जाता है। अन्य दिनों में बच्चा अगर माँ के पास कस्टडी है तो माँ के पास रहेगा उससे पिता से मिलने की इजाजत नहीं होती।
- जॉइंट कस्टडी – इसमें बच्चे को दोनों पक्ष बारी – बारी से अपने पास रखते हैं इसके लिए भी कोर्ट द्वारा समय निर्धारत किया जाता है।
- लीगल कस्टडी – इसमें कोई एक पक्ष बच्चे के सभी फैसले क़ानूनी तौर पर लेने के लिए अधिकृत होता है। 18 साल उम्र न होने तक माता-पिता में से कोई एक उसकी एजुकेशन, फाइनेंस, धर्म और मेडिकल जरूरतों के बारे में बड़ा फैसला ले सकता है।
- सोल चाइल्ड कस्टडी – इसमें जब माता या पिता में से कोई एक बच्चे की परवरिस में असक्ष्म होता है तब बच्चे की कस्टडी दूसरे पक्ष को पूर्ण रूप से दी जाती है। अगर बच्चों को किसी एक पेरेंट यानी मां या पिता से कोई खतरा है तब कोर्ट दूसरे पक्ष को बच्चे की पूरी कस्टडी दे देती है।
- थर्ड पार्टी कस्टडी – इसके अनुसार बच्चे की कस्टडी उस बच्चे के रिलेटेड को दी जाती है जैसे बच्चे की मां और पापा दोनों की मृत्यु हो जाए या फिर दोनों की दिमागी हालत ठीक न हो, या फिर एक जीवित हो लेकिन बच्चे की देखभाल और जिम्मेदारी नहीं लेना चाहता हो, ऐसी सिचुएशन में कोर्ट बच्चे की कस्टडी थर्ड पार्टी यानी तीसरे पक्ष को देता है। यह अक्सर नाना-नानी या दादा-दादी को ही मिलती है। कुछ एक केस में यह कस्टडी अनाथाश्रम को भी दी जा सकती है।
हिन्दू विवाह अधिनियम, 1955- भारत में हिन्दू समुदाय के लोगों के विवाह और इससे संबंधित प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया कानून है। यह कानून भारत सरकार द्वारा 18 मई 1955 को लागू किया गया था। इसमें हिन्दू, जैन, सिख और बौद्ध धर्मों के अनुयायी शामिल हैं। इस एक्ट के तहत, विवाह, तलाक, अलगाव, वास्तविक परिपत्तियों का समाधान, वर और वधु के अधिकार, बच्चों की देखभाल, और सम्पूर्ण विवाह संबंधित कार्यक्रम शामिल हैं।
मुस्लिम मैरिज एक्ट, 1939- भारत में मुस्लिम समुदाय के लोगों के विवाह से जुड़ी प्रक्रियाओं को नियंत्रित करने के लिए बनाया गया कानून है। यह कानून सरकार द्वारा 1939 में लागू किया गया था और यह मुस्लिम पर्सनल लॉ के तहत आया। मुस्लिम मैरिज एक्ट, 1939 के तहत निकाह (विवाह) और इसके बाद के मामलों को नियंत्रित किया जाता है।